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Wednesday 19 August 2015

दूसरों के कल्याण के लिए ऋणी हुये भारतेन्दू हरिश्चंद्र : 'युगावतार' नाटक --- पूनम



कल दिनांक 18 अगस्त 2015 को 'यशपाल सभागार' में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, राजर्षि पुरोषोत्तम दास टंडन भवन, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ द्वारा आयोजित पद्म भूषण अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी के अवसर पर 'युगावतार' नाटक का मंचन किया गया जो उन्हीं के द्वारा लिखित है।मंचन से पूर्व उर्मिल कुमार थपलियाल जी द्वारा उनके नाट्य -लेखन पर प्रकाश डाला।उन्होने बताया कि अमृतलाल जी को नाटक के मुक़ाबले 'कहानी' व 'उपन्यास' लिखना ज़्यादा अच्छा लगता था। 
भारतेन्दू हरीशचंद सोच, विचार और व्यवहार में बहुत बड़े थे। नाटक देखते समय ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे साक्षात भारतेन्दू हरीशचंद को ही देख रहे हैं। इतनी जीवंतता थी जैसे उन्हीं के युग में जी रहे हैं। दुख, तकलीफ की सीमाओं को लांघ कर इनहोने सदैव दूसरों के लिए ही किया- समाज के लिए, देश के लिए, मातृ भाषा के लिए और सभी भाषाओं की इज्ज़त की। होम्योपैथी, ज्योतिष तथा अन्य शास्त्रों व और भी विधाओं का सम्मान करना कोई उनसे सीखे।उनका कहना था-'निज भाषा उन्नति अहें सब उन्नति को मूल, बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल । '   उन्होने कहा कि मैंने अमीर कुल में जन्म लिया है यह मेरा सौभाग्य है किन्तु मैं ऋणी हूँ यह मेरा दुर्भाग्य है। जिसके सिर पर ऋण का बोझ होता है  वह कैसे किसी के सामने सिर उठा सकता है। यहाँ उनकी महानता की पराकाष्ठा दिखाई गई  है। दूसरों को मदद  करने में वह खुद  ऋणी हो गए थे। उनके कहने का मतलब यह था कि जिसका है मैं उसी को लौटा रहा हूँ। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। वह कृष्ण के अनन्य भक्त थे। 
धन दौलत को उन्होने सौतेले भाई को दे दिया , उनकी पत्नी व और लोगों ने बटवारे के लिए कहा परंतु उन्होने कहा मैं तो भाई को  ही दे रहा हूँ। मैंने अपने हाथों से कागज पर हस्ताक्षर किए हैं कोई दूसरा नहीं। अपने और अपने भाई के बीच में दौलत की दीवार नहीं खड़ी करना चाहता। प्रेम तो प्रेम है वह अटूट है उसमें कोई दरार न डाले।
एक सेठ ने आकर कहा  भारतेन्दू तुमको तुम्हारे काले कारनामों के कारण लोग  याद रखेंगे। तुम तो धन को लुटा रहे हो तुम्हारा क्या है सब कुछ तो तुम्हारे भाई का है क्यों बर्बाद कर रहे हो।सेठ ने इतना धिक्कारा कि  भारतेन्दू हरीशचंद घर का परित्याग कर देते हैं। मुनीम और नौकरउनको बहुत रोकते रहे जो उनके वास्तविकता में सगे थे। उन्होने कहा कि आज से हरीशचंद दरिद्र हो गया। काशी में उन्होने बंगाल के अकाल पीड़ितों की जीवन रक्षा के लिए भिक्षा मांगी। काशी में हलचल हो गई। उनका हृदय इतना द्रवित हो गया था कि चीत्कार कर सबसे धन देने की अपील की अपने लिए नहीं दूसरों के लिए।
वह हृदय क्या जो भरा नहीं भावों से उसका हृदय तो पत्थर का टुकड़ा है। उन्होने नारी जाति के उत्थान के लिए नारी-शिक्षा पर ज़ोर दिया। जिस तरह से विदेशी औरतें अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलती हैं उसी तरह से भारत की नारी भी हों इसी लिए अङ्ग्रेज़ी शिक्षा के भी हिमायती थे। उन लोगों का ही यह प्रयास है कि आज भारतीय नारी शिक्षा समेत हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर रही है। वेश्याओं के लिए भी उनके हृदय में मान था- इज्ज़त थी। 
महज़ पाँच-दस वर्ष की  छोटी सी उम्र में ही माँ और पिता के मर जाने से ही किसी की विद्वता नहीं मरती है।उनके अच्छे संस्कार नहीं मरते हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनका अतुल्य योगदान है। इन्हीं कारणों से उनके संस्कार और संस्कृति , साहित्य देश काल और समाज में आज भी जीवित हैं जो हम लोगों को प्रेरणा देते हैं। इसी लिए कहा गया है-'साहित्य समाज का दर्पण है' । कुछ लोग चले जाते हैं लेकिन हृदय पर ऐसी लकीर छोड़ जाते हैं जो कभी नहीं मिटती वह अमिट है।  

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