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Monday, 19 November 2018
Friday, 14 September 2018
Monday, 10 September 2018
Saturday, 25 August 2018
सैकड़ों दुआएं थी...!!! -------- विकाश राज रंजन
Vikash Raj Ranjan ·सुविचार✴suvichar
25-08-2018
#लस्सी"
लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई मे लगे ही थे...
कि एक लगभग 70-75 साल की माताजी कुछ पैसे मांगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गईं ..
उनकी कमर झुकी हुई थी ,.चेहरे की झुर्रियों मे भूख तैर रही थी ..आंखें भीतर को धंसी हुई किन्तु सजल थीं ..
उनको देखकर मन मे ना जाने क्या आया कि मैने जेब से सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया .."दादी लस्सी पियो गे ?"
मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक ..
क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 2-4-5 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 30 रुपए की एक है ..
इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उन दादी के मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी !
दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए ..
मुझे कुछ समझ नही आया तो मैने उनसे पूछा .. "ये काहे के लिए अम्मा ?"
"इनको मिला के पिला दो बेटे !"
भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था ..
रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी !
एका एक आंखें छलछला आईं और भर भराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा ..
उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गईं ...
अब मुझे वास्तविकता मे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार ,अपने ही दोस्तों और अन्य कई ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए ना कह सका !
डर था कि कहीं कोई टोक ना दे ..कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर मे बैठ जाने पर आपत्ति ना हो ..
लेकिन वो कुर्सी जिस पर मैं बैठा था मुझे काट रही थी ..
लस्सी से भरा ग्लास हम लोगों के हाथों मे आते ही मैं अपना लस्सी का ग्लास पकड़कर दादी के पड़ोस मे ही जमीन पर बैठ गया
क्योंकि ये करने के लिए मैं स्वतंत्र था ..इससे किसी को आपत्ति नही हो सकती .
हां ! मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल के लिए घूरा ..
लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बिठाया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा .."ऊपर बैठ जाइए साहब !"
अब सबके हाथों मे लस्सी के ग्लास और होठों पर मुस्कुराहट थी
बस एक वो दादी ही थीं जिनकी आंखों मे तृप्ति के आंसूं ..होंठों पर मलाई के कुछ अंश और सैकड़ों दुआएं थी...!!!
ना जाने क्यों जब कभी हमें 10-20-50 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उस पर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं
लेकिन सोचिए कभी..... कि क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं ?
क्या उन रुपयों को बीयर , सिगरेट ,पर खर्च कर दुआएं खरीदी जा सकती हैं!
साभार :
https://www.facebook.com/groups/suvichar11/permalink/600330883736929/?__xts__%5B0%5D=68.ARDoFlz0NaZy4G5mBTuQInLS4Ny_bgAS1W1Rh4I9cgd8zUUJhoIFA-lufpTI9_PNxjXChqHo1luHEnD0ij5aRLiAG56HiWPLYvbpQiirZz_LSaBKCXpRkFp9nazajAsZpWI_9KJxXfyimUOHulTacRx1wKFyonZue9bvu9aV8YmVCDrHcW8kjpNBuA&__tn__=-RH-R
Tuesday, 7 August 2018
मूर्ख कौन? ------ पंकज सिंह
Pankaj Singh
मूर्ख कौन?किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?"
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.
बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"
राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"
बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी."
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ."
सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"
बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ."
यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?'
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है."
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ."
बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े.
सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए."
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"
बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें."
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है."
बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.
राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"
बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था."
राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.
राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं."
बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया." इतना कहकर वह चुप हो गई.
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"
"हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं."
राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं."
इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं."
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी."
बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं." फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती."
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया."
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.
https://www.facebook.com/groups/suvichar11/permalink/578508302585854/
Monday, 16 July 2018
नम्रता और क्रूरता
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नम्रता और क्रूरता ये शब्द ही तो हैं । नम्रता से कही गई बात बहुत ही असरदार होती है । क्रूरता तो इंसान को खत्म ही कर देती है। चोट का घाव तो खत्म हो जाता है परंतु क्रूरता से बोला हुआ शब्द मरते दम तक इंसान को तिल - तिल करके मारता है।
नम्रता से बोले गए शब्द में इतनी ताकत होती है कि, जीर्ण शरीर को भी स्वस्थ कर दे। नम्र बोल कर इंसानियत को बचा लें।
नम्रता और क्रूरता ये शब्द ही तो हैं । नम्रता से कही गई बात बहुत ही असरदार होती है । क्रूरता तो इंसान को खत्म ही कर देती है। चोट का घाव तो खत्म हो जाता है परंतु क्रूरता से बोला हुआ शब्द मरते दम तक इंसान को तिल - तिल करके मारता है।
नम्रता से बोले गए शब्द में इतनी ताकत होती है कि, जीर्ण शरीर को भी स्वस्थ कर दे। नम्र बोल कर इंसानियत को बचा लें।
Sunday, 8 July 2018
काश ऐसा हो पाता ? -------- पूनम माथुर
धोखा खाता
मरता अन्नदाता
सूदखोर पैसा बनाता
कैसा ज़ोर- जुल्म का नाता
नौजवान सड़कों पर कराहता
दफ्तर के चक्कर काटता
हर कोई अमीर नहीं होता
गरीबों का एक सपना होता
उनका भी एक धंधा होता
चैन से दो वक्त खा सकता
कोई चोर और डाकू नहीं बनना चाहता
मजबूरी ही तो अंधे कुएं में ले जाता
जहां से चाह कर भी वापस नहीं आ सकता
न मौत होती , न आतंक होता
न राजा होता, न रंक होता
न रौब होता , न दबाव होता
धरती और आकाश सभी का होता
काश ऐसा हो पाता ?
Saturday, 7 July 2018
“ये बिल क्या होता है माँ ?” -------- एकता जोशी
एकता जोशी
“ये बिल क्या होता है माँ ?”
8 साल के बेटे ने माँ से पूछा।
माँ ने समझाया -- “जब हम किसी से कोई सामान
लेते हैं या काम कराते हैं, तो वह उस सामान या काम
के बदले हम से पैसे लेता है, और हमें उस काम या
सामान की एक सूची बना कर देता है,
इसी को हम बिल कहते हैं।”
लड़के को बात अच्छी तरह समझ में आ गयी।
रात को सोने से पहले, उसने माँ के तकिये के नीचे
एक कागज़ रखा,
जिस में उस दिन का हिसाब लिखा था।
पास की दूकान से सामान लाया 5रु
पापा की bike पोंछकर बाहर निकाली। 5 रु
दादाजी का सर दबाया 10 रु
माँ की चाभी ढूंढी 10 रु
कुल योग 30 रु
यह सिर्फ आज का बिल है ,
इसे आज ही चुकता कर दे तो अच्छा है।
सुबह जब वह उठा तो उसके तकिये के नीचे 30 रु.
रखे थे। यह देख कर वह बहुत खुश हुआ
कि ये बढ़िया काम मिल गया।
तभी उस ने एक और कागज़ वहीं रखा देखा।
जल्दी से उठा कर, उसने कागज़ को पढ़ा।
माँ ने लिखा था --
जन्म से अब तक पालना पोसना -- रु 00
बीमार होने पर रात रात भर
छाती से लगाये घूमना -- रु 00
स्कूल भेजना और घर पर
होम वर्क कराना -- रु 00
सुबह से रात तक खिलाना, पिलाना,
कपड़े सिलाना, प्रेस करना -- रु 00
अधिक तर मांगे पूरी करना -- रु 00
कुल योग रु 00
ये अभी तक का पूरा बिल है,
इसे जब चुकता करना चाहो कर देना।
लड़के की आँखे भर आईं
सीधा जा कर माँ के पैरों में झुक गया
और मुश्किल से बोल पाया --
“तेरे बिल में मोल तो लिखा ही नहीं है माँ,
ये तो अनमोल है,"
इसे चुकता करने लायक धन तो
मेरे पास कभी भी नहीं होगा।
मुझे माफ़ कर देना , माँ।“
माँ ने," हँसते हुए" उसे गले से लगा लिया ।
बच्चों को ज़रूर पढ़ायें यह मेरा निवेदन है ......
भले ही आपके बच्चे माँ बाप बन गए हो ।
साभार :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=218948045396891&set=a.108455693112794.1073741829.100018450913469&type=3
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07-07-2018
“ये बिल क्या होता है माँ ?”
8 साल के बेटे ने माँ से पूछा।
माँ ने समझाया -- “जब हम किसी से कोई सामान
लेते हैं या काम कराते हैं, तो वह उस सामान या काम
के बदले हम से पैसे लेता है, और हमें उस काम या
सामान की एक सूची बना कर देता है,
इसी को हम बिल कहते हैं।”
लड़के को बात अच्छी तरह समझ में आ गयी।
रात को सोने से पहले, उसने माँ के तकिये के नीचे
एक कागज़ रखा,
जिस में उस दिन का हिसाब लिखा था।
पास की दूकान से सामान लाया 5रु
पापा की bike पोंछकर बाहर निकाली। 5 रु
दादाजी का सर दबाया 10 रु
माँ की चाभी ढूंढी 10 रु
कुल योग 30 रु
यह सिर्फ आज का बिल है ,
इसे आज ही चुकता कर दे तो अच्छा है।
सुबह जब वह उठा तो उसके तकिये के नीचे 30 रु.
रखे थे। यह देख कर वह बहुत खुश हुआ
कि ये बढ़िया काम मिल गया।
तभी उस ने एक और कागज़ वहीं रखा देखा।
जल्दी से उठा कर, उसने कागज़ को पढ़ा।
माँ ने लिखा था --
जन्म से अब तक पालना पोसना -- रु 00
बीमार होने पर रात रात भर
छाती से लगाये घूमना -- रु 00
स्कूल भेजना और घर पर
होम वर्क कराना -- रु 00
सुबह से रात तक खिलाना, पिलाना,
कपड़े सिलाना, प्रेस करना -- रु 00
अधिक तर मांगे पूरी करना -- रु 00
कुल योग रु 00
ये अभी तक का पूरा बिल है,
इसे जब चुकता करना चाहो कर देना।
लड़के की आँखे भर आईं
सीधा जा कर माँ के पैरों में झुक गया
और मुश्किल से बोल पाया --
“तेरे बिल में मोल तो लिखा ही नहीं है माँ,
ये तो अनमोल है,"
इसे चुकता करने लायक धन तो
मेरे पास कभी भी नहीं होगा।
मुझे माफ़ कर देना , माँ।“
माँ ने," हँसते हुए" उसे गले से लगा लिया ।
बच्चों को ज़रूर पढ़ायें यह मेरा निवेदन है ......
भले ही आपके बच्चे माँ बाप बन गए हो ।
साभार :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=218948045396891&set=a.108455693112794.1073741829.100018450913469&type=3
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Sunday, 1 July 2018
उनको मेरा नमन -------- पूनम माथुर
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हमारे दादाजी मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे , परंतु किसी कारणवश यह संभव न हो सका। चिकित्सा के माध्यम से लोगों को ठीक किया जाता है। कई ऐसे असाध्य रोग होते हैं जिनको चिकित्सक ठीक कर देते हैं। लेकिन आज के जमाने में चिकित्सा को धंधा बना लिया गया है। काश हमारे सभी डाक्टर मरीजों का ख्याल रखते ?
जो दूसरों की मदद करते हैं उनमें ईश्वरीय गुण हैं उनको मेरा नमन।
हमारे दादाजी मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे , परंतु किसी कारणवश यह संभव न हो सका। चिकित्सा के माध्यम से लोगों को ठीक किया जाता है। कई ऐसे असाध्य रोग होते हैं जिनको चिकित्सक ठीक कर देते हैं। लेकिन आज के जमाने में चिकित्सा को धंधा बना लिया गया है। काश हमारे सभी डाक्टर मरीजों का ख्याल रखते ?
जो दूसरों की मदद करते हैं उनमें ईश्वरीय गुण हैं उनको मेरा नमन।
Thursday, 15 March 2018
Friday, 9 March 2018
Thursday, 8 March 2018
Tuesday, 6 March 2018
हाउसवाइफ -------- निधि गुप्ता
Nidhi Gupta
·06-03-23018
*हाउसवाइफ*🌺🌺🌺🌺
मै थक गयी मुझे भी अब नौकरी करनी है..
बस! बड़ी सख्ती के साथ ऋचा ने पति से कहा..
तो पति ने कहा..
मगर क्यों क्या कमी है घर में, आखिर तुम नौकरी क्यों करना चाहती हो?
ऋचा ने शिथिल होकर कहा..क्योंकि मै जानती हूँ कि..
अगर छुट्टी चाहिए तो दफ्तर में काम करो घर में नहीं।
बिना तनख्वाह के सबका रौब झेलो..
इतने सारे बॉस से तो अच्छा है..कि मै नौकरी करूँ..
इंडिपेंड रहूँ..
छुट्टी भी मिलेंगी,
घर में रौब भी रहेगा,
और मेरी डिग्रियाँ भी रद्दी न बनेंगी .
महत्वाकांक्षी लोग रोटी कमाते हैं बनाते नहीं..
दिन भर बाई की तरह लगे रहने वाली..
स्वयं को बनने सँवरने का समय नहीं देती..
तो उसको गयी गुजरी समझा जाता है.
बाई भी अपना रौब जमाती है..
छुट्टी करती है..
बेढंगे काम का पैसा लेती है ..
पर मै मै क्या हूँ..मुझे कभी कोई एक्सक्यूज. नहीं..
कोई तारीफ नहीं..
कोई वैल्यू नहीं..
और
अपेक्षाओं का अंत नहीं..
ऊपर से नो ऐबीलिटी..
में हूँ ही क्या
एक मामूली हाउस वाइफ..😢
पति ने कहा नहीं..
तुम अपने घर की बॉस हो।🧙♀
मगर तुम में कुछ कमी हैं..
आर्डर की जगह रिक्वैस्ट करती हो..
डाटने की जगह रूठ जाती हो..
गुस्सा.करने वालों को
बाहर का रास्ता दिखाने की वजाय मनाती हो..
नौकरी करके रोज बनसँवर कर..
बाहर की दुनियाँ में आपना वजूद बनाना अपने लिए जीना आसान है..
लेकिन अपने आप को मिटाकर अपनों को बनाए रखनाआसान नहीं होता,
आसान नहीं होता खुद को भुलाकर सबका ध्यान रखना..
*तुम हाउस वाइफ नहीं हाउस मैनेजर हो..*
अगर तुम घर को मैनेज न करो तो हम बिखर जाएँगे..
आदतें तुमने बिगाड़ी हैं.हमारी..
हम कहीं भी.कुछ भी पटकते हैं..
जूते कपड़े किताबें बर्तन.
तुम समेटती रही कभी टोका होता..
ये कहकर पति ने कहा अब से में सच में हैल्प करुँगा तुम्हारी..
चलो मैं ये बर्तन धो देता हूँ.
सिंक.में पड़े बर्तनों को छूते ही ऋचा नाराज हो गयी ..
अच्छा..अब आप ये सब.. करोगे?
हटो..मै आपको पति ही देखना चाहती हूँ बीबी का गुलाम नहीं...
पति ने कहा..अच्छा शाम को खाना मत बनाना पिज्जा मँगालेंगे..
कीमत सुनकर ऋचा फिर..
ये फालतू के खर्चे..
घर का बना शुद्ध खाओ..
पति ने कहा..
तुम चाहती क्या हो..
कभी कभी आराम हैल्प देना चाहूँ तो वो भी नहीं और शिकायत भी...
ऋचा ने कहा..कुछ नहीं गुस्सा मुझे भी आ सकता है.
थकान मुझे भी हो सकती है.
मन मेरा भी हो सकता है..
बीमार में भी हो सकती हूँ..
बस चाहिए कुछ नहीं कभी कभी..झुँझलाऊँ..
गुस्सा करूँ
तो आप भी ऐसे ही झेल लेना जैसे म़े सबको झेलती हूँ
मेरा हक सिर्फ आप पर है।
👌🏼👌🏼👌🏼🙏🙏🙏🙏🙏
साभार :
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1829902870643463&id=100008713033185
Friday, 2 March 2018
होली का रंग
होली का कैसा है रंग
नहीं मिलता है रंगों का संग
कहीं अन्न तो कहीं भुखमरी ने किया तंग
कैसे बताएं दुनिया का यह ढंग
दिलों में नहीं होता होली का उमंग
कोई बात ऐसी हो , भर जाये रंग का तरंग
प्रेम हर्ष उल्लास से भर जाये दिलों का सुरंग
Monday, 26 February 2018
बदल और बदला का अंतर
जिंदगी को बदल
जिंदगी ने बदला
जिंदगी ने फिर बोला
इंसान को कैसा तोला
न राम न रहीम मिला
झगड़ों में सिर्फ कोलाहल मिला
दिलों में मिला आग का शोला
न मीठी वाणी न मरहम मिला
लोगों में कैसा समा जला
नफरत और भूलों को भुला
चलो चलें ऐसे जहां में
जहां न कोई बदला हो न गिला
न कोई हो अकेला
Sunday, 25 February 2018
डाल्फिन बन कर ------
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यह मार्मिकता भरा लेख है । इंसान क्या है ? सिर्फ पैसा ही के लिए लोग जी रहे हैं। न उद्देश्य रहा है जीवन का न कुछ है जो जैसे नचाए वैसे नाचिए। दुख होता है पर समझाया नहीं जा सकता है किसी को भी ।
यह मार्मिकता भरा लेख है । इंसान क्या है ? सिर्फ पैसा ही के लिए लोग जी रहे हैं। न उद्देश्य रहा है जीवन का न कुछ है जो जैसे नचाए वैसे नाचिए। दुख होता है पर समझाया नहीं जा सकता है किसी को भी ।
Friday, 9 February 2018
Monday, 5 February 2018
Tuesday, 30 January 2018
Monday, 29 January 2018
Friday, 19 January 2018
सोशल मीडिया में महिलाओं की कम भागीदारी क्यों ? ------ गीता यादव
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कठिन परिस्थितियों के बावजूद नारी को खुद अपनी राह बनानी होगी :
नारी को लोग कभी देवी - कभी अबला कह कर पता नहीं क्या - क्या उपमाएँ तो देते रहते हैं लेकिन वास्तविक अधिकार नहीं। आज भी नारी जंजीरों में ही जकड़ी हुई है - घर, समाज, देश सभी जगहों में।
कभी - कभी तो लगता है, क्या नारी होना अपमान है ?
कठिन परिस्थितियों के बावजूद नारी को खुद अपनी राह बनानी होगी :
नारी को लोग कभी देवी - कभी अबला कह कर पता नहीं क्या - क्या उपमाएँ तो देते रहते हैं लेकिन वास्तविक अधिकार नहीं। आज भी नारी जंजीरों में ही जकड़ी हुई है - घर, समाज, देश सभी जगहों में।
कभी - कभी तो लगता है, क्या नारी होना अपमान है ?
Monday, 8 January 2018
Friday, 5 January 2018
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