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Monday 31 July 2017

जैसे इस सुकून के लिए सदियाँ गुजर गयी





My feelings
July 20 at 9:58pm 
*एक शिक्षिका की कलम से....*

कितना मुश्किल होता है एक माँ के लिए छोटे बच्चे को सोता हुआ छोड़कर घर से बाहर अपने जॉब पर जाना ? इस तकलीफ को सिर्फ एक माँ ही समझ सकती है !

बच्चा उठेगा मम्मा मम्मा करके थोड़ी देर रोएगा, जब माँ नही दिखेगी तो चुपचाप चप्पल पहन कर अपनी दादी या घर के किसी बड़े सदस्य के पास चला जाएगा। समय से पहले ऐसे बच्चे बड़े व जिम्मेदार होते जाते हैं, लेकिन माँ अपने जिम्मेदार बच्चे को भरी आँखों से ही देखती है, कि भला अभी इसकी उम्र ही क्या है ?

पता नही एक माँ में इतनी हिम्मत इतनी ममता इतनी ताकत आती कहाँ से है ? किसी से कुछ कहती भी नही। बस आँखे भरती है, डबडबा जाती है, फिर खुद को कंट्रोल करती हुई भरी आँखों को सुखा लेती है।

जॉब के साथ साथ घर परिवार संभालना, बच्चों के टिफिन से लेकर हसबैंड के कपड़ो तक, ब्रेकफास्ट से लेकर रात के डिनर तक, कितना बेहतर मैनेज करती है फिर भी मन में लगा रहता है कि बच्चे को बादाम पीस कर नही दे पाई वो ज्यादा फायदा करता। कहीं न कहीं कुछ छूटा छूटा सा लगा रहता है।

इतना काम अगर स्त्री अपने मायके में करे तो वहां उसको बहुत तारीफ और प्रोत्साहन मिले या कह लें कि वहां उसे कोई करने ही न दे, सब सहयोग करें।

बच्चे का नाश्ता खाना सब बना कर जाना, फिर बच्चे ने क्या खाया क्या नही ? इसकी चिंता में लगे रहना।
सच में एक माँ घर से बाहर, बच्चे से दूर कभी रिलेक्स ही नही रह पाती। घर पहुँचो तो बच्चे के टेढ़े मेढ़े बाल, गलत ढ़ंग से बंद हुआ शर्ट का बटन देखकर एक साथ बेहद ख़ुशी और पीड़ा दोनों होती है, मुँह फिर भी कुछ नही बोलता बस आँखों को रोकना मुश्किल हो जाता है। बच्चे के सामने सब कुछ ज़ब्त करके प्यारी मुस्कान देना एक माँ के ही बस का काम है।

बाहर से जितनी मजबूत अंदर से उतनी ही कमजोर होती हैं माँ। सुबह से छूटा हुआ बच्चा जब दौड़कर गले लगता है तो मानो सारी कायनात की खुशियाँ मिल गयी, फिर वैसी ख़ुशी वैसा सुकून स्वर्ग में भी नही मिले। सारे दिन की भागदौड़ भूलकर उस पल ऐसा लगता है कि जैसे इस सुकून के लिए सदियाँ गुजर गयी।


कभी कभी सोचती हूँ कि जेंट्स लोग जो इतने रिलेक्स रहते है परिवार और बच्चों की तरफ से उसमे बहुत बड़ा हाथ स्त्रियों का होता है।

एक पुरुष आफिस से लौटता है तो कहीं चौराहे पर चाय पीते हुए अपने दोस्तों के साथ गप्पें मारता है फिर रात तक घर आता है उसी जगह एक स्त्री अपने काम को खत्म करने के बाद सिर्फ और सिर्फ अपने घर अपने बच्चे के पास पहुंचती है जबकि अच्छा उसे भी लगता है बाहर अपनी फ्रेंड्स के साथ गपशप करते हुए चाय की चुस्की लेना। पर अपने बच्चे तक पहुंचने की बेताबी सारी दुनिया की खुशियोँ को एक ओर कर देती है।

मानती हूँ महिलाओं, लड़कियो को जॉब करना चाहिए, इससे कांफिडेंस आता है पर सच है कि बहुत कुछ हाथ से जाता भी है !!

https://www.facebook.com/Meetaagarwal1234/photos/a.516432125048551.124407.516018381756592/1811134668911617/?type=3


Sunday 23 July 2017

चाहत क्या ? नुकसान किसका ? ज़िंदगी में नाटक क्यों ?

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Wednesday 19 July 2017

"ज्वाइनिंग लेटर" आँगन छूटने का पैगाम लाता है " -------- श्याम माथुर



Shyam Mathur
"बेटे डोली में विदा नही होते और बात है मगर
उनके नाम का "ज्वाइनिंग लेटर" आँगन छूटने 
का पैगाम लाता है "
जाने की तारीखों के नज़दीक आते आते
मन बेटे का चुपचाप रोता है 
अपने कमरे की दिवारे देख देख
घर की आखरी रात नही सोता है,
होश सम्हालते सम्हालते घर की जिम्मेदारियां सम्हालने लगता
विदाई की सोच बैचेनियों का समंदर हिलोरता है 
शहर, गलियाँ , घर छूटने का दर्द समेटे
सूटकेस में किताबें और कपड़े सहेजता है 
जिस आँगन में पला बढ़ा आज उसके छूटने पर
सीना चाक चाक फटता है
अपनी बाइक , बैट , कमरे के अजीज पोस्टर 
छोड़ आँसू छिपाता मुस्कुराता निकलता है .........
अब नही सजती गेट पर दोस्तों की गुलज़ार महफ़िल
ना कोई बाइक का तेज़ हॉर्न बजाता है 
बेपरवाही का इल्ज़ाम किसी पर नही अब
झिड़कियाँ सुनता देर तक कोई नही सोता है
वीरान कर गया घर का कोना कोना
जाते हुए बेटी सा सीने से नही लगता है
ट्रेन के दरवाजे में पनीली आंखों से मुस्कुराता है
दोस्तों की टोली को हाथ हिलाता 
अलगाव का दर्द जब्त करता खुद बोझिल सा लगता है
बेटे डोली में विदा नही होते ये और बात है ........
फिक्र करता माँ की मगर बताना नही आता है
कर देते है "आन लाइन" घर के काम दूसरे शहरों से और जताना नही आता है
दोस्तों को घर आते जाते रहने की हिदायत देते
संजीदगी से ख्याल रख "मान" नही मांगता है 
बड़ी से बड़ी मुश्किल छिपाना आता है 
माँ से फोन पर पिता की खबर पूछते 
और पिता से कुछ पूछना सूझ नही पाता है
लापरवाह, बेतरतीब लगते है बेटे
मजबूरियों में बंधा दूर रहकर भी जिम्मेदारियां निभाना आता है
पहुँच कर अजनबी शहर में जरूरतों के पीछे 
दिल बच्चा बना माँ के आँचल में बाँध जाता है
ये बात और है बेटे डोली में विदा नही होते मगर.........  

https://www.facebook.com/shyam.mathur.16/posts/828863377274280

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परम्परा का मज़ाक ' उचित है. जब बड़े को आदर देना है तब पैर छूने की वैज्ञानिक परंपरा यह थी कि, आशीर्वाद लेने वाला बड़े / विद्वान के दायें पैर के अंगूठे के नाखून पर अपने दाहिने हाथ को उलट कर अंगूठे के नाखून और इसी प्रकार पैर की प्रत्येक उंगली पर हाथ की वही उंगली एवं इसी प्रकार बाएं पैर के नाखूनों पर बाएं हाथ के नाखूनों को रखता था. पैर के नाखूनों से ऊर्जा निकलती है और हाथ के नाखूनों से ऊर्जा ग्रहण की जाती है. अर्थात बड़े या विद्वान के गुण छोटे द्वारा ग्रहण किये जाते थे. अब विकृत परंपरा में जूता या चप्पल छुआ जाता है, उससे क्या लाभ ? इसी कुपरम्परा की ओर ध्यानाकर्षण कराया गया है. यह बहुत अच्छा सन्देश है......'साफ जूते कह व्यंग्य ' इसीलिये तो डाला गया है कि, परंपरा के नाम पर जूते छूने का क्या लाभ ? अब बहू या शिष्य बड़ों से जूता उतरने को कैसे कहेंगे इसलिए आज इस कु-प्रथा को त्यागने की ज़रुरत है - यही सन्देश है.
(विजय राजबली माथुर ) 

















Friday 14 July 2017

खीजें नहीं खुश रहें, दूसरों को सुधारने की लत से बचें

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Monday 10 July 2017

प्रयास करें तो -------- श्याम माथुर

Shyam Mathur

बहुत समय पहले की बात है, किसी गाँव में एक
किसान रहता था । उस किसान की एक बहुत
ही सुन्दर बेटी थी । दुर्भाग्यवश, गाँव के
जमींदार से उसने बहुत सारा धन उधार
लिया हुआ था ।किसान की सुंदर बेटी को देखकर उसने सोचा क्यूँ न कर्जे के बदले किसान के सामने
उसकी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखा जाये।
जमींदार किसान के पास गया और
उसने कहा – तुम अपनी बेटी का विवाह मेरे
साथ कर दो, बदले में मैं तुम्हारा सारा कर्ज
माफ़ कर दूंगा ।
जमींदार की बात सुन कर किसान और
किसान की बेटी के होश उड़ गए ।
तब जमींदार ने कहा – चलो गाँव की पंचायत
के पास चलते हैं और जो निर्णय वे लेंगे उसे हम
दोनों को ही मानना होगा । वो सब मिल
कर पंचायत के पास गए और उन्हें सब कह
सुनाया।
उनकी बात सुन कर पंचायत ने थोडा सोच विचार किया और कहा- ये मामला बड़ा उलझा हुआ है अतः हमइसका फैसला किस्मत पर छोड़ते हैं ,
जमींदार सामने पड़े सफ़ेद और काले रोड़ों के
ढेर से एक काला और एक सफ़ेद रोड़ा उठाकर
एक थैले में रख देगा फिर लड़की बिना देखे उस
थैले से एक रोड़ा उठाएगी, और उस आधार पर
उसके पास तीन विकल्प होंगे :-
१. अगर वो काला रोड़ा उठाती है तो उसे
जमींदार से शादी करनी पड़ेगी और उसके
पिता का कर्ज माफ़ कर दिया जायेगा।
२. अगर वो सफ़ेद पत्थर उठती है तो उसे
जमींदार से शादी नहीं करनी पड़ेगी और उसके
पिता का कर्फ़ भी माफ़ कर दिया जायेगा।
३. अगर लड़की पत्थर उठाने से मना करती है
तो उसके पिता को जेल भेज दिया जायेगा।
पंचायत के आदेशानुसार जमींदार झुका और
उसने दो रोड़े उठा लिए ।
जब वो रोड़ा उठा रहा था तो तब किसान
की बेटी ने देखा कि उस जमींदार ने
दोनों काले रोड़े ही उठाये हैं और उन्हें थैले में
डाल दिया है।
लड़की इस स्थिति से घबराये बिना सोचने
लगी कि वो क्या कर सकती है, उसे तीन
रास्ते नज़र आये:-
१. वह रोड़ा उठाने से मना कर दे और अपने
पिता को जेल जाने दे।
२. सबको बता दे कि जमींदार दोनों काले
पत्थर उठा कर सबको धोखा दे रहा हैं।
३. वह चुप रह कर काला पत्थर उठा ले और अपने
पिता को कर्ज से बचाने के लिए जमींदार से
शादी करके अपना जीवन बलिदान कर दे।
उसे लगा कि दूसरा तरीका सही है, पर
तभी उसे एक और भी अच्छा उपाय सूझा, उसने
थैले में अपना हाथ डाला और एक रोड़ा अपने
हाथ में ले लिया और बिना रोड़े की तरफ देखे
उसके हाथ से फिसलने का नाटक किया,
उसका रोड़ा अब हज़ारों रोड़ों के ढेर में गिर
चुका था और उनमे
ही कहीं खो चुका था .लड़की ने कहा – हे
भगवान ! मैं कितनी बेवकूफ हूँ । लेकिन कोई
बात नहीं,आप लोग थैले के अन्दर देख लीजिये
कि कौन से रंग का रोड़ा बचा है, तब
आपको पता चल जायेगा कि मैंने कौन
सा उठाया था,जो मेरे हाथ से गिर गया।
थैले में बचा हुआ रोड़ा काला था, सब लोगों ने
मान लिया कि लड़की ने सफ़ेद पत्थर
ही उठाया था।
जमींदार के अन्दर इतना साहस
नहीं था कि वो अपनी चोरी मान ले ।
लड़की ने अपनी सोच से असम्भव को संभव कर
दिया ।
मित्रों, हमारे जीवन में भी कई बार
ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जहाँ सब
कुछ धुंधला दीखता है, हर
रास्ता नाकामयाबी की ओर जाता महसूस
होता है पर ऐसे समय में यदि हम सोचने
का प्रयास करें तो उस लड़की की तरह
अपनी मुश्किलें दूर कर सकते हैं

https://www.facebook.com/shyam.mathur.16/posts/823209514506333





Wednesday 5 July 2017

गिले शिकवे,सदुपयोग,साथी की पहचान

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